Thursday, December 3, 2009


स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " भारतवर्ष में एक सुंदर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुन्गस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बूंद किसी सीपी में चली जाय, तो उसका मोती बन जाता है।

सीपियों को यह मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की ऊपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बूंद की प्रतीक्षा करती रहती है। ज्यों ही एक बूंद पानी उनके पेट में जाता है, त्यों ही उस जलकण को लेकर मुंह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं।

हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा। पहले सुनना होगा, फ़िर समझना होगा, अन्त में बाहरी संसार से दृष्टि हटाकर, सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर हमें अन्तर्निहित सत्य-तत्त्व के विकास के लिए प्रयत्न करना होगा। एक भाव को पकडो, उसी को लेकर रहो। उसका अन्त देखे बिना उसे मत छोड़ो। जो एक भाव को लेकर उसी में मत्त रहते हैं, उन्हीं के ह्रदय में सत्य तत्त्व का उन्मेष होता है।

...एक विचारलो उसी विचार को अपना जीवन बनाओ उसी का चिंतन करो, उसी का स्वप्न देखो और उसी में जीवन बिताओ।सब प्रकार की बकवास छोड़ दो। जिन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है, केवल उन्हीं के लिखे ग्रन्थ पढो।

यदि हम सचमुच स्वयं कृतार्थ होना और दूसरों का उद्धार करना चाहें, तो हमे मन की गहराई तक जाना पड़ेगा। पुरी लगन के साथ, कमर कसकर साधना में लग जाओ- फ़िर मृत्यु भी आये, तो क्या ! मन्त्रं वा साधयामि शरीरं वा पातयामि - काम सधे या प्राण ही जायें। फल की ओर आँख रखे बिना साधना में मग्न होजाओ ! " (१:८९-९०)



" जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरूपतः नित्यापूर्ण और नित्यशुद्ध है, तब उसको फ़िर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है।

भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुखों का मूल है।

पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फ़िर मृत्यु-भय नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनाएं फ़िर नहीं रहतीं।

पूर्वोक्त कारणद्वय का आभाव हो जाने पर फ़िर कोई दुःख नहीं रह जाता। उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती
मनः संयोग -१५ : परीक्षा और परिणाम '


हम यह कैसे जानेंगे कि मन की दृष्टि धारणा की वस्तु या लक्ष्य पर पड़ रही है या नहीं ? इसकी पहचान यही है कि मन जब किसी वस्तु पर पुर्णतः एकाग्र रहता है तो-

उस समय मन में अन्य कोई विचार उठेगा ही नहीं। पहले से चयनित आदर्श या लक्ष्य ही मन के चिन्तन का एक मात्र विषय बन जाएगा। उस मूर्त आदर्श में जो उच्चभाव हैं बस उन्हीं का चिन्तन चलता रहेगा।



धीरे धीरे लक्ष्य के ऊपर कितने दीर्घ अवधि तक मनः संयोग या धारणा की गई, यह भी ज्ञात नहीं रह जाएगा।प्रतिदिन नियमित रूप से

- " मन को एक ही आदर्श में एकाग्र करने कि चेष्टा को मनः संयोग कहा जाता है।"



प्रति दिन इस अभ्यास को करने से - मन को अपनी इच्छा और प्रयोजनीयता के अनुसार किसी भी ज्ञातव्य विषयपर एकाग्र करने की क्षमता प्राप्त हो जाती है।

" इच्छा मात्र से

हम अपने मन को-- किसी भी इन्द्रिय विषयों से खींच कर, किसी भी ' ज्ञातव्य ' विषय में लगा सकते हैं। धारणा के अभ्यास को ही मन का व्यायाम भी कहा जाता है।" शारीरिक व्यायाम एवं पौष्टिक आहार से जिस प्रकार शरीर की शक्तियों में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है, उसी प्रकार

मानसिक व्यायाम तथा मानसिक आहार से मन की शक्ति भी बलवती होती जाती है।



शुभ विचारों का चिन्तन करने से मन को भी पौष्टिक आहार मिल जाता है। श्रेष्ठ साहित्य, अच्छी संगत, रचनात्मक विचार-विमर्श, उच्च भावों का चिन्तन जैसा पौष्टिक आहार और धारणा या मनः संयोग के नियमित व्यायाम के द्वारा मन को उन्नत और शक्तिशाली बनाया जा सकता है।

इस शक्तिशाली मन को संयत करके वशीभूत कर लिया जाय तो उसको किसी भी कार्य में नियोजित कर उस कार्यमें पूर्ण सफलता पाई जा सकती है। जिस व्यक्ति ने मन की गुलामी करनी छोड़ दी और ख़ुद उसका स्वामी बन गया, अर्थात जिसने अपने मन को जीत लिया है, उसने वस्तुतः जगत को भी जीत लिया है।

वह कहींभी और किसी भी काम में पराजित नहीं होता, क्योंकि वह मन की अनन्त शक्ति का अधिकारी बन जाता है। वह जिस किसी विषय में अपना मनोनिवेश करगा, वह विषय उसे पुरी तरह याद हो जाएगा। वशीभूत मन की सहायता से हम अपना जीवन सुंदर ढंग से गठित करने में सफल हो जाते हैं, तथा जीवन लक्ष्य को

प्राप्त करने के उपायों पर मनः संयोग करके अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं। इस प्रकार हम लोग धारणा या मनः संयोग का अभ्यास करके इसी जीवन में यथार्थ सुख, शान्ति और आनन्द के अधिकारी बन सकते है।